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यु॒वं वन्द॑नं॒ निर्ऋ॑तं जर॒ण्यया॒ रथं॒ न द॑स्रा कर॒णा समि॑न्वथः। क्षेत्रा॒दा विप्रं॑ जनथो विप॒न्यया॒ प्र वा॒मत्र॑ विध॒ते दं॒सना॑ भुवत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yuvaṁ vandanaṁ nirṛtaṁ jaraṇyayā rathaṁ na dasrā karaṇā sam invathaḥ | kṣetrād ā vipraṁ janatho vipanyayā pra vām atra vidhate daṁsanā bhuvat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यु॒वम्। वन्द॑नम्। निःऽऋ॑तम्। ज॒र॒ण्यया॑। रथ॑म्। न। द॒स्रा॒। क॒र॒णा। सम्। इ॒न्व॒थः॒। क्षेत्रा॑त्। आ। विप्र॑म्। ज॒न॒थः॒। वि॒प॒न्यया॑। प्र। वा॒म्। अत्र॑। वि॒ध॒ते। दं॒सना॑। भु॒व॒त् ॥ १.११९.७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:119» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:21» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (करणा) उत्तम कर्मों के करने वा (दस्रा) दुःख दूर करनेवाले स्त्री पुरुषो ! (युवम्) तुम दोनों (जरण्यया) विद्यावृद्ध अर्थात् अतीव विद्या पढ़े हुए विद्वानों के योग्य विद्या से युक्त (निर्ऋतम्) जिसमें निरन्तर सत्य विद्यमान (वन्दनम्) प्रशंसा करने योग्य (विप्रम्) विद्या और अच्छी शिक्षा के योग से उत्तम बुद्धिवाले विद्वान् को (रथम्) विमान आदि यान के (न) समान (समिन्वथः) अच्छे प्रकार प्राप्त होओ और (क्षेत्रात्) गर्भ के ठहरने की जगह से उत्पन्न हुए सन्तान के समान अपने निवास से उत्तम काम को (आ, जनथः) अच्छे प्रकार प्रकट करो, जो (अत्र) इस संसार में (वाम्) तुम दोनों का गृहाश्रम के बीच सम्बन्ध (प्र, भुवत्) प्रबल हो उसमें (विपन्यया) प्रशंसा करने योग्य धर्म की नीति से युक्त (दंसना) कामों को (विधते) विधान करने को प्रवृत्त हुए मनुष्य के लिये उत्तम राज्य के अधिकारों को देओ ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - विचार करनेवाले स्त्रीपुरुष जन्म से लेके जब-तक ब्रह्मचर्य्य से समस्त विद्या ग्रहण करें तब तक उत्तम शिक्षा देकर सन्तानों को यथायोग्य व्यवहारों में निरन्तर युक्त करें ॥ ७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे करणा दस्राश्विनौ स्त्रीपुरुषौ युवं जरण्यया युक्तं निर्ऋतं वन्दनं विप्रं रथं न समिन्वथः क्षेत्रादुत्पन्नमिवाजनथो योऽत्र वां युवयोर्गृहाश्रमे संबन्धः प्रभुवत्तत्र विपन्यया युक्तानि दंसना कर्माणि विधते विधातुं प्रवर्त्तमानायोत्तमान् राज्यधर्माधिकारान् दद्यातम् ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (युवम्) युवां स्त्रीपुरुषौ (वन्दनम्) वन्दनीयम् (निर्ऋतम्) निरन्तरमृतं सत्यमस्मिन् (जरण्यया) जरणान् विद्यावृद्धानर्हति यया विद्यया तया युक्तम् (रथम्) विमानादियानम् (न) इव (दस्रा) (करणा) कुर्वन्तौ (सम्) (इन्वथः) प्राप्नुतम् (क्षेत्रात्) गर्भाशयोदरान्निवासस्थानात् (आ) (विप्रम्) विद्यासुशिक्षायोगेन मेधाविनम् (जनथः) जनयतम्। शप आर्धधातुकत्वाण्णिलुक्। (विपन्यया) स्तोतुं योग्यया धर्म्यया नीत्या युक्तानि (प्र) (वाम्) युवयोः (अत्र) अस्मिञ् जगति (विधते) विधात्रे (दंसना) कर्माणि (भुवत्) भवेत्। अत्र लेट् ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - मननशीलाः स्त्रीपुरुषा जन्मारभ्य यावद् ब्रह्मचर्य्येण सकला विद्या गृह्णीयुस्तावत्सन्तानान् सुशिक्ष्य यथायोग्येषु व्यवहारेषु सततं नियोजयेयुः ॥ ७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जन्मापासून ब्रह्मचारी राहून संपूर्ण विद्या प्राप्त करावी व उत्तम शिक्षण देऊन मननशील स्त्री पुरुषांनी संतानाला यथायोग्य व्यवहारात सदैव युक्त करावे. ॥ ७ ॥